संवाददाता: मनोज कुमार
जसवंतनगर (इटावा): जसवंतनगर की ख्याति प्राप्त ऐतिहासिक मैदानी रामलीला में तीसरे दिन रामलीला के मैदान में भगवान श्री राम ने जयंत (कौआ) की आंख फोड़ी तथा विराध राक्षस वध किया।
देवराज इंद्र का पुत्र जयंत अपने आप को बहुत ही बलवान समझता है जो कि सोचता है ये तो वनवासी है ये मेरे क्या बिगड़ सकते है श्री राम को परेशान करने के लिए कौआ का रूप बदलकर सीता के पास पहुंच जाता है।
कौआ के बारे में एक काफी दिलचस्प बात जानने योग्य है कि उसकी होती तो दो आंखें हैं, लेकिन वो देख सिर्फ एक ही आंख से सकता है. ऐसे में अब सवाल ये उठता है कि आखिर कौए की एक आंख ही क्यों होती है? इसके पीछे एक पौराणिक कथा काफी प्रचलित है। भगवान श्री राम ने एक बार क्रोध में आकर कौए की एक आंख फोड़ दी थी, लेकिन क्यों? आइए जानते हैं इस बारे में विस्तार से...
कथा श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने इस कथा का जिक्र विस्तार से किया है कहा जाता है कि एक बार इंद्र देव के पुत्र जयंत ने भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने की सोची. दरअसल में वो श्रीराम की शक्ति की जानकारी लेना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने कौए का रूप धारण कर लिया और माता सीता के पास पहुंच गए और माता के पैर को अपने चोंच से घायल कर दिया और वहां से भाग गए। जब भगवान श्रीराम ने सीता के घायल पैर को देखा तो उन्हें काफी क्रोध आ गया और उस कौए के बारे में जानते ही उन्होंने अपने कोदंड नाम के धनुष पर सरकंडे को चढ़ाकर उस कौए पर निशाना लगाने की तैयारी शुरू कर दी, जिसे देख कौए रूपी जयंत की डर से हालत खराब हो गई और वो भागकर ब्रह्मलोक और शिवलोक भगवान शंकर से अपने प्राणों बचाने के लिए बोला तो उन्होंने मना कर दिया शंकर जी बोले राम किशन में जाओ वही क्षमा कर सकते है।
फिर वो अपने पिता इन्द्र देव के पास गए तो इन्द्र देव ने उनसे कहा कि उस बाण से तुम्हारी रक्षा सिर्फ स्वयं भगवान श्री राम ही कर सकते हैं। इसके बाद वो भागते हुए भगवान श्री राम के चरणों में आकर गिर गए और अपने किए की माफी मांगने लगे.
तब भगवान राम ने कहा कि वो इस बाण को वापस तो नहीं ले सकते हैं, लेकिन उससे कम आघात पहुंचा सकते हैं। ऐसे में श्री राम ने अपने उस बाण से कौए के रूप में मौजूद जयंत की एक आंख फोड़ दी। उसी दिन से कौए को एक आंख वाला माना जाने लगा।
पितृ पक्ष में कौए को भोजन कराने की है परंपराइसी कथा के अनुसार कौए की एक आंख फोड़ने के बाद भगवान श्रीराम ने उसे वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में से एक हिस्सा तुम्हें मिलेगा। कहा जाता है कि तभी से पितृपक्ष के दिनों में कौए को भोजन कराकर पितरों को प्रसन्न किया जाता है।
बिराध राक्षस वन में घूमता हुआ पंचवटी में आ जाता है। जिसका प्रभु श्रीराम के हाथों उद्धार होता है
विराध दंडकवन का राक्षस था। सीता और लक्ष्मण के साथ राम ने दंडक वन में प्रवेश किया। वहां पर उन्हें ऋषि-मुनियों के अनेक आश्रम दृष्टिगत हुए। राम उन्हीं के आश्रम में रहने लगे। ऋषियों ने उन्हें एक राक्षस के उत्पात की जानकारी दी। राम ने उन्हें निर्भीक किया। वहां से उन्होंने महावन में प्रवेश किया, जहां नाना प्रकार के हिंसक पशु और नरभक्षक राक्षस निवास करते थे। ये नरभक्षक राक्षस ही तपस्वियों को कष्ट दिया करते थे। कुछ ही दूर जाने के बाद बाघम्बर धारण किए हुए एक पर्वताकार राक्षस दृष्टिगत हुआ।
वह राक्षस हाथी के समान चिंघाड़ता हुआ सीता पर झपटा। उसने सीता को उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। उसने राम और लक्ष्मण पर क्रोधित होते हुए कहा- तुम धनुष-बाण लेकर दंडक वन में घुस आए हो। तुम दोनों कौन हो? क्या तुमने मेरा नाम नहीं सुना? मैं प्रतिदिन ऋषियों का मांस खाकर अपनी क्षुधा शांत करने वाला विराध हूं। तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हें यहां ले आई है। मैं तुम दोनों का अभी रक्तपान करके इस सुन्दर स्त्री को अपनी पत्नी बनाऊंगा।
विराध ने हंसते हुए कहा- यदि तुम मेरा परिचय जानना ही चाहते हो तो सुनो! मैं जय राक्षस का पुत्र हूं। मेरी माता का नाम शतह्रदा है। मुझे ब्रह्माजी से यह वर प्राप्त है कि किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र न तो मेरी हत्या ही कर सकती है और न ही उनसे मेरे अंग छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यदि तुम इस स्त्री को मेरे पास छोड़कर चले जाओगे तो मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं तुम्हें नहीं मारूंगा।
राम और लक्ष्मण ने उससे घोर युद्ध किया और उसे हर तरह से घायल कर दिया। फिर उसकी भुजाएं भी काट दीं।तभी राम बोले- लक्ष्मण! वरदान के कारण यह दुष्ट मर नहीं सकता इसलिए यही उचित है कि हमें भूमि में गड्ढा खोदकर इसे बहुत गहराई में गाड़ देना चाहिए।
लक्ष्मण गड्ढा खोदने लगे और राम विराध की गर्दन पर पैर रखकर खड़े हो गए। तब विराध बोला- हे प्रभु! मैं तुम्बुरू नाम का गंधर्व हूं। कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। मैं शाप के कारण राक्षस हो गया था। आज आपकी कृपा से मुझे उस शाप से मुक्ति मिल रही है। राम और लक्ष्मण ने उसे उठाकर गड्ढे में डाल दिया और गड्ढे को पत्थर आदि से पाट दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार श्रीराम व लक्ष्मण द्वारा कुचले जाने पर हताहत होकर इस राक्षस ने कहा-
अवटे चापि मां राम प्रक्षिप्य कुशली व्रज।
रक्षसां गतसत्वानामेष धर्म: सनातन:॥
अर्थात, "हे राम! आप मुझे गड्डे में दबा कर चले जाइए, क्योंकि मरे हुये राक्षसों को जमीन में गाढ़ना पुरातन प्रथा है।'
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